Bhagavad Gita 31 Quotes For Peace Of Mind In Hindi | भगवद गीता के शांति मन के लिए 31 अनमोल उद्धरण
भगवद गीता के ये श्लोक मानसिक शांति, मन के संयम और आत्म-समर्पण पर केंद्रित हैं। प्रत्येक उद्धरण के साथ अध्याय और श्लोक संख्या भी दी गई है। ये भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश हैं, जो तनावमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।
अध्याय 2, श्लोक 47: “हे अर्जुन, तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में नहीं। इसलिए तू कर्मफल का कारण भी मत बन और न ही अकर्मण्यता में आसक्त हो।”
अध्याय 3, श्लोक 9: “यह संसार यज्ञ के लिए किए गए कर्मों के अलावा अन्य कर्मों से बंधन में फँस जाता है। इसलिए, हे अर्जुन, तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म कर।”
अध्याय 5, श्लोक 10: “जो व्यक्ति समस्त कर्मों को ब्रह्म (ईश्वर) को अर्पित कर, आसक्ति को त्यागकर कार्य करता है, वह पाप से उसी प्रकार अछूता रहता है जैसे पानी से कमल का पत्ता।”
अध्याय 6, श्लोक 5: “मनुष्य को अपने आत्मा द्वारा अपने को ऊपर उठाना चाहिए, न कि नीचे गिराना चाहिए। आत्मा ही मनुष्य का मित्र है और आत्मा ही मनुष्य का शत्रु है।”
भगवद गीता के शांति मन के लिए 31 अनमोल उद्धरण
अध्याय 6, श्लोक 6: “जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए उसका मन मित्र के समान है। लेकिन जिसने अपने मन को नहीं जीता, उसका मन शत्रु के समान है।”
अध्याय 8, श्लोक 7: “इसलिए सभी समय में मुझे स्मरण कर और युद्ध कर। अपने मन और बुद्धि को मुझ में लगा कर तू निःसंदेह मुझ तक पहुँचेगा।”
अध्याय 9, श्लोक 22: “जो भक्त अनन्य भाव से मेरी आराधना करते हैं और निरंतर मेरा चिंतन करते हैं, उनके योग-क्षेम (प्राप्ति और संरक्षण) का मैं स्वयं ख्याल रखता हूँ।”
अध्याय 18, श्लोक 66: “सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, तुम शोक मत करो।”
अध्याय 2, श्लोक 20: “आत्मा न कभी जन्म लेता है और न ही कभी मरता है। यह न तो जन्म ले चुका है, न ही यह भविष्य में जन्म लेगा। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुराण है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होता।”
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31 Quotes For Peace Of Mind In Hindi
अध्याय 5, श्लोक 18: “विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में पण्डित लोग समदर्शी होते हैं।”
अध्याय 6, श्लोक 6 (विस्तार): “जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए उसका मन मित्र के समान है। लेकिन जिसने अपने मन को नहीं जीता, उसका मन शत्रु के समान है।”
अध्याय 9, श्लोक 22 (विस्तार): “जो भक्त अनन्य भाव से मेरी आराधना करते हैं और निरंतर मेरा चिंतन करते हैं, उनके योग-क्षेम (प्राप्ति और संरक्षण) का मैं स्वयं ख्याल रखता हूँ।”
अध्याय 10, श्लोक 20: “हे अर्जुन, मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही सभी प्राणियों का आदि, मध्य और अंत हूँ।”
अध्याय 11, श्लोक 55: “जो व्यक्ति मेरे लिए कर्म करता है, मुझे परम मानता है, मेरा भक्त है, और सभी प्राणियों के प्रति निर्वैर (द्वेष रहित) है, वह मुझे प्राप्त होता है।”

अध्याय 12, श्लोक 13-14: “जो व्यक्ति सभी प्राणियों से द्वेष रहित, मित्रवत और करुणावान है, जो निर्मोही, निरहंकारी, समदुःखसुखी और क्षमाशील है, जो सतत संतुष्ट और योग में स्थित है, जिसका आत्मसंयम दृढ़ है, जिसकी बुद्धि और मन मुझ में स्थित है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।”
अध्याय 4, श्लोक 7: “हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं की सृष्टि करता हूँ।”
अध्याय 4, श्लोक 8: “साधु पुरुषों की रक्षा करने, दुष्टों का विनाश करने और धर्म की स्थापना के लिए, मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।”
अध्याय 3, श्लोक 21: “श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, सामान्य लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जैसा आदर्श प्रस्तुत करता है, लोग भी वैसे ही उसका अनुसरण करते हैं।”
अध्याय 4, श्लोक 13: “चार वर्णों का विभाजन मैंने गुण और कर्म के आधार पर किया है। हालांकि मैं इसका कर्ता हूँ, फिर भी तू मुझे अकर्तार और अविनाशी समझ।”
अध्याय 7, श्लोक 3: “हजारों मनुष्यों में से कोई एक ही सिद्धि के लिए प्रयास करता है, और उन सिद्ध पुरुषों में से भी कोई एक ही मुझे वास्तव में जान पाता है।”
अध्याय 2, श्लोक 66: “नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥” (भगवान में स्थित न होने वाले की बुद्धि नहीं होती, न चिंतन, न शांति। अशांत का सुख कहाँ?)
अध्याय 6, श्लोक 34: “चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रामाथि बलवद् दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥” (मन चंचल, बलवान और दृढ़ है, इसका दमन हवा को रोकने जैसा कठिन है।)
अध्याय 3, श्लोक 35: “श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितत्। स्वभावनियतं कर्म न प्रहज्जेत्करणि॥” (अपना स्वधर्म गुणरहित भी दूसरे के सुसंपन्न परधर्म से श्रेयस्कर है। स्वभावनियत कर्म न त्यागें।)
अध्याय 2, श्लोक 48: “योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥” (योगस्थ होकर आसक्ति त्यागकर कर्म करो। सिद्धि-असिद्धि में सम रहकर समत्व ही योग है।)
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अध्याय 9, श्लोक 34: “मनमना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥” (मन से मेरा चिंतन करो, भक्त बनो, पूजा करो, नमस्कार करो। इस प्रकार तू मुझको प्राप्त होगा।)
अध्याय 2, श्लोक 62: “ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥” (विषय चिंतन से आसक्ति, आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।)
अध्याय 2, श्लोक 14: “मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥” (इंद्रिय स्पर्श से शीतोष्ण सुखदुःख आते-जाते अनित्य हैं, इनका सहन करो।)
अध्याय 6, श्लोक 26: “यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥” (जब-जब मन भटके, तब-तब इसे आत्मा में वश में कर लाओ।)
अध्याय 2, श्लोक 50: “बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥” (बुद्धियुक्त सुख-दुःख त्यागता है। इसलिए योग से युक्त हो, योग कर्मों में कुशलता है।)
अध्याय 2, श्लोक 70: “आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥” (जैसे नदियाँ समुद्र भरती हैं पर वह अचल रहता है, वैसे कामनाएँ आने पर शांत रहने वाला शांति पाता है।)
अध्याय 5, श्लोक 21: “बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥” (बाह्य विषयों में असक्त रहित आत्मा आत्मसुख पाता है, ब्रह्मयोगी अक्षय सुख भोगता है।)

